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माता का ई—मेल….

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वो कहते हैं न…
अगर दिल खोलोगे यारों के साथ,
तो नहीं खोलना पड़ेगा औजारों के साथ।

मां वैष्णों देवी के दर्शन को नहीं जाने पाने का दुख मोहित के साथ साझा करने का मुझे फायदा मिल ही गया। एक दिन अचानक उसका मैसेज आया कि ”15 तारीख को वैष्णों देवी चलेगा?” उसने बताया कि उसके आॅफिस वाले दोस्त जा रहे हैं तू भी चल। यहां न कहने का सवाल ही नहीं उठता था। मैंने झट से हां कर दिया।

पहले—पहल मैं इस बात को लेकर संशय में था कि जिन लोगों के साथ मैं जा रहा हूं वो कैसे होंगे? खैर जैसे भी होते मेरे मन में बस एक बात थी कि मुझे माता के दर्शन करने हैं। 15 की सुबह मैं घर से निकल पड़ा। रास्ते में बहुत सारे कुत्ते पीछे पड़ गए। कुछ शरीफ तो कुछ दर हरामी। उन दर हरामियों को मुझे ​अपने लिए खरीदे बिस्किट खिला के शांत करना पड़ा।

रेलवे स्टेशन पहुंचा तो पता चला कि मोहित अभी वहां नहीं पहुंचा है। स्टेशन के बाहर 4—5 लड़कों का एक ग्रुप खड़ा हुआ था। मुझे ऐसा लगा कि ये वही लोग हैं जिनके साथ मैं जाने वाला हूं। सच कहूं तो एक बार को मैंने माथा पकड़ लिया था और भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि ये मोहित के दोस्त न हों। इतने में मोहित का फोन आया कि सीधे प्लेटफॉर्म पहुंच जा। मेरी जान में जान आई क्योंकिे मोहित के फोन के बाद भी वो लोग वहीं खड़े थे। मैंने भगवान को शुक्रिया किया और आगे चल पड़ा।

प्लेटफॉर्म पर जब मैं पहुंचा तो सभी लोग वहां पहले से ही पहुंच चुके ​थे। ईशान, अर्जुन, विशाल, उमेश और अरुण। इन सभी लड़कों से मैं पहली बार मिल रहा था और अगले तीन दिन इन्हीं के साथ ​बीतने वाले ​थे। शुरुआती बातचीत में चुप रहा और सभी को समझने की करता रहा। अब मैं निश्चिंत था कि मैं भले—मानसों के बीच हूं।

ट्रेन आई तो सीटों का पंगा। अभी तक मैं सोच रहा था कि अकेला मैं ही एक्स्ट्रा बंदा हूं, मगर बाद में पता चला कि अरुण भी मेरी ही श्रेणी में है। सबसे खास बात, अरुण जैसे शांत—शांत था उसे देखकर मुझे लगा कि वो उनका शायद कोई सीनियर—वीनियर है। ट्रेन में सीटें केवल पांच कन्फर्म थी वो भी अलग अलग कोच में और बैठने वाले हम सात थे, लेकिन जैसे तैसे एडजस्ट करके हम बैठ गए। उमेश हमारा जुगाड़ू था। वो लगभग 1 घंटे तक सीट एडजस्ट करने में ही लगा रहा। अपने आस—पास की सीट पर बैठने वाले शायद हर बंदे से पूछ चुका था कि किसे कहां उतरना है ताकि उस सीट पर अपना कब्जा जमा सके। मोहित का बचपना आज भी वैसा ही है जैसा स्कूल में हुआ करता था। वो शरारतों पर शरारत किए जा रहा था कभी सर्दी में ट्रेन का पंखा चलाकर तो कभी खिड़की खोलकर। लोग आंखें मसलते हुए देख रहे थे कि आखिर हवा कहां से आ रही है।

माता रानी ​की कृपा रही कि ट्रेन के आगे चलते ऐसी नौबत आ गई कि एक पूरा कम्पार्टमेंट ही खाली हो गया और उसपर हमारा ही कब्जा हो गया। ट्रेन में टीटी भी टिकट चेक करने नहीं आया।

ट्रेन जब जम्मू से कटरा के रास्ते पहुंची तो रास्ता देखने लायक था। अभी तक ऐसे रास्ते हम हॉलिवुड की फिल्म में ही देखा करते थे। भारतीय इं​जीनियरिंग को सलाम कि उन्होंने ऐसे दुर्गम रास्ते पर लम्बे लम्बे पुल और टनल बना दी।

हम लोग कटरा पहुंचे। होटल लिया, नहा धोकर यात्रा के लिए निकल पड़े। रास्ते भर इतनी मौज मस्ती ​की कि थकान का पता ही नहीं चला। लड़कों मौजमस्ती करते हुए माता के भवन तक चलते रहे। मोहित जो स्कूल के दिनों से ही नारे लगाने में एक्सपर्ट यहां उसकी सीटी बज चुकी थी। इसलिए ये जिम्मेदारी अर्जुन ने उठा ली। और अर्जुन के नारे तो वाह.. वाह.. मुन्नी बोले, जय माता दी। शीला बोले, जय माता दी। अचानक से मुझे गाना याद आया, ”कल रात माता का मुझे ईमेल आया है,” मैंने ये लाईन गाई ही थी कि अर्जुन ने अपने मसखरे अंदाज में गाने में और भी मस्ती भर दी। ये गाना सबकी जबान पर चढ़ गया। इसे गाते—गाते हम आगे बढ़ते चले गए। यहां भाई अरुण ज्यादा थक गया था। वो कई बार आराम करने के लिए रुका। हां ईशान की स्पीड और स्टेमिना काबिलेतारीफ था। उसकी स्पीड देखकर ऐसा लग रहा था जैसे बचपन में वो मुगली घुट्टी—555 पिया करता था और जवानी में वो हमदर्द का टॉनिक सिंकारा ले रहा है। लड़का अरुण, उमेश और उनके बैग को घसीटता हुआ माता तक ले गया।

भवन तक हम पहुंच गए। अब सबसे बड़ा टास्क था भरी सर्दी में ठंडे पानी में नहाना। जैसे तैसे कर के नहा तो लिए, लेकिन उसके बाद जो सुन्नाहट शरीर में चढ़ी है, कैसे बताउं! पैर की उंगलियां तो ऐसे लग रही थी मानों हैं ही नहीं। कपड़े बदलकर हम मंदिर में गए। मुझे यकीन नहीं था कि माता रानी जब दर्शन देगी तो ऐसे देगी। अं​दर न के बराबर भीड़ थी। मैं लगभग 3 से 4 मिनट तक पिं​डी को बस देखता ही रहा। सच कहूं तो मन—मस्तिष्क बिल्कुल हल्का सा लगने लगा था।

दर्शन के बाद आई भैरो बाबा के दर्शन की। बावा कसम से जो लंका भैरों बाबा पर चढ़ने में लगी है न माता रानी ही याद आ गई। ऐसा लग रहा था मानो घुटनों का पानी खत्म हो गई। घुटनों को सर्विसिंग की जरुरत आन पड़ी थी।

बाबा के दर्शन के बाद बारी आई फोटो सेशन की। मेरा भाई उमेश। धै फोटो अर धै फोटो। खींचमखाच दनादन। पूरे टूर पर सबसे ज्यादा फोटो अगर ​खींची गई तो वो भाई उमेश ही है। भवन से नीचे उतरते हुए बंदरों का आतंक और उन आतंकियों से अर्जुन का मुकाबला देखने लायक था। वो हर बंदर को हड़काते हुए चल रहा था। बंदर को दूर से देखते ही उसे चेतावनी दे देता था कि अगर नीचे आया तो मुंह तोड़ दूंगा। सभी बंदर भी शायद उससे खौफज़दा थे। इसलिए केवल एक बंदर को छोड़कर बाकि किसी बंदर ने उसके पास फटकने की कोशिश भी नहीं की।

भवन से नीचे उतरकर हमने शिवखोड़ी जाने का ​फैसला लिया। अरे कोई तो आए और हमें रेड एंड व्हाइट बहादुरी पुरस्कार दे। पैर पहले ही पिलपिले हो चुके थे। उसके बाद भी खतरों के खिलाड़ियों ने एक और खतरा मोल ले​ लिया। असली डेयरडेविल तो हमारी बस का ड्राईवर था। वो हमें बाबा के क्या बल्कि तीनों लोकों के दर्शन कराने पर तुला था। उपर से हमें जो सीट मिली थी वो भी ड्राईवर के ​केबिन में ही। वो सही सलातम पहुंचा दे तो समझो सात खून माफ!

पता नहीं मैं सही हूं या गलत मगर शिव खोड़ी पहुंचकर उमेश की टांगों का मी​टर एकदम डाउन हो चुका था। वो बार—बार सबको पिट्ठू लेकर यात्रा करने के फायदे गिना रहा था, लेकिन भाई की ट्रिक काम नहीं आई। सबकी हिम्मत देखकर उसने भी पैदल ही चलने के लिए कमर कस ली। रास्ते मेें उमेश ने भावनाओं में बहकर मेरे और विशाल के सामने अपनी जिंदगी की कुछ अनछुई परतों को खोल दिया। वो तो भावनाओं में बह गया था इसलिए उसे रोकने के लिए हमें ‘बोल—बम’ का नारा लगाना ही पड़ गया।

खैर हमारी यात्रा सम्पन्न हुई और बहुत अच्छे से हुई। ये तीन दिन मेरे लिए बहुत थे सभी को समझने के लिए। विशाल (विशु, नीरज) मुझे जिम्मेदार, समझदार और एक फाइटर नजर आया। हालातों से लड़कर यहां तक पहुंचा है। लड़का लोहा हो चुका है और ये उसके बर्ताव में ​भी दिखा। पूरे टूर में वो सबको लीड करता रहा।

ईशान सौम्य, शांत और मस्तमौला। सोच समझकर बोलने वाला। वन लाईनर मजाक करना और फिर मन ही मन मुस्कुराने वाला। अर्जुन ने उसे एक अलग कैटेगिरी भी दी ‘रशियन’।

अर्जुन— मसखरा और नौटंकी। मगर दिल का साफ। असल में इस पूरे सफर की रीढ़ अर्जुन ही रहा। मजा तो टूर में वैसे भी आता, मगर उसके होने से मजा दोगुना हो गया। हॉलीवुड फिल्मों का लड़का पूरा अफीम है।

अरुण— चुपचाप चार्ली। हालांकि अरुण ज्यादा किसी से बोला नहीं, लेकिन जहां तक मैंने उसे परखा मस्ती उसके मन में बसी है जिसे वो जाहिर नहीं करता।

उमेश— यानि सेल्फी कुमार। फुल जुगाड़ू और टिपीकल शादीशुदा। मैं उसे एक नाम और देता हूं— मीथेन मैन। अपने हत्यारे और विनाशकारी रसायनिक हमले से होटल के कमरे की फिज़ा भाई ने जो बदली थी। उसके लिए उसे भगवान भी माफ नहीं करेगा।

मोहित — जिम्मेदारियों का मारा। जिम्मेदारियां जो यहां भी उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी। फिर चाहे हमें सही होटल तक पहुंचाने की हो या आधिरा और मुक्कु को चुप कराने की। उसकी खासियत ये भी है कि वो सबके बारे में सोचता है। अरुण जब हमसे पीछे रह जाया करता था तो मोहित ​ही रुककर उसका इंतजार किया करता था।

ये सफर मुझे हमेशा याद रहेगा। पहला माता रानी का अचानक आया बुलावा और दूसरा सफर में मिला दोस्तों का साथ। भगवान सब से एक बार फिर मिलाए। ताकि फिर से उन यादों को ताजा किया जा सके।
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