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16 जून को उत्तराखंड में आई आपदा को एक साल पूरा हो गया। प्रकृति ने एक झटके में ही हमें अपनी ताकत दिखा दी। कुदरत ने दिखा दिया कि उससे छेड़छाड़ का नतीजा क्या हो सकता है। खैर जो हो गया सो हो गया। आपदा के बाद लोगों को उम्मीद थी कि जल्द ही हालात सुधरेंगे और उन लोगों के सिर पर छत होगी जिनके घर अलकनंदा, मंदाकिनी अपने साथ बहा ले गई। लेकिन एक साल बाद भी उत्तराखंड के आपदा प्रभावित क्षेत्रों के हालात ज्यौं के त्यौं हैं।
सरकार की ओर से यहां मारे गए 1100 स्थानीय लोगों के परिवारों को मदद के नाम पर 5 लाख रुपए मिले तो, लेकिन वे परेशान हैं कि इस पैसे का क्या किया जाए। उत्तराखंड जैसे पहाड़ी इलाके में उत्तर प्रदेश में बनने वाली एक ईंट यहां पहुंचते-पहुंचते लगभग 12 से 13 रुपए की हो जाती है। ऐसे में लोग परेशान हैं कि वे पैसे से खाना खाएं या घर बनाएं।
पिछले साल तक बद्रीनाथ जाने वाले यात्रियों की संख्या 4,30000 थी, जबकि केदारनाथ जाने वालों की संख्या लगभग डेढ़ लाख थी। बद्रीनाथ पहुंचने वालों की यह संख्या इस साल घटकर 74000 तो केदारनाथ में लगभग 20 हजार पर आ गई है।
उत्तराखंड के लोग और यहां की अर्थव्यवस्था पर्यटन पर निर्भर है। यहां पर्यटकों के ठहरने के लिए हजारों लाखों होटल और धर्मशालाएं हैं और इतनी ही संख्या में ढाबे और रेस्त्रां बने हुए हैं। बद्री-केदार के कपाट खुलने के बाद से ही ये होटल और ढाबे यात्रियों से भरे रहते हैं। किन्तु इस बाद दृश्य बिल्कुल अलग है। ठसाठस भरी रहनी वाली धर्मशालाएं खाली पड़ी हैं। पिछले साल आई आपदा और अब मीडिया में आ रही खबरों के कारण लोग यहां आस-पास के इलाकों में आने से भी बच रहे हैं। पयर्टकों की कमी के कारण लोग स्थानीय लोगों के सामने खाने तक के लाले पड़ रहे हैं। दिल्ली का सबसे करीबी पहाड़ी इलाका होने के कारण न केवल उत्तराखंड बल्कि राजधानी में बैठे टूर ऑपरेटर भी माथा पकड़ कर बैठे हैं. यहां कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने बैंक से ऋण लेकर होटल बनाया और आपदा में होटल खो भी बैठे। अपनी सालों की कमाई खो चुके ये लोग बैंक की किश्तें भरने को मजबूर हैं। जिनके होटल बच गए वे यात्रियों की कमी का सामना कर रहे हैं। होटल और रेस्त्राओं में काम करने वाले कर्मचारियों को भी काम पर से हटाया जा रहा है। ज्यादातर लोग मुआवजे के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट रहे हैं। न केवल होटल बल्कि छोटे दुकानदार, पिट्ठू के जरिए यात्रा कराने वाले लोग तो भुखमरी के कगार पर हैं।
बीते साल आई आपदा में सरकारी आंकडों के अनुसार 4,199 लोग काल के ग्रास में समा गए। हालांकि गैर-सरकारी आंकड़ा कहता है कि यह मरने और लापता लोगों की संख्या 20 हजार के पार है। कुल 8,400 सड़के बर्बाद हुई जबकि 2,027 सड़कें बर्बाद हुईं। 150 से अधिक पुल या तो टूट गए या पानी के साथ बह गए। ऐसे कई परिवार हैं जो आज भी अपने परिवार के लोगों की वापसी का इंतजार कर रहे हैं। न केवल उत्तराखंड बल्कि 18 राज्यों के 3,175 लोगों के लापता होने की सूचना यहां के मिसिंग सेल में दर्ज है। कुल 1, 764 लोगों को मृत्यु प्रमाण पत्र जारी किया गया।
एक स्थानीय पत्रकार ने बताया कि रामबाड़ा में भारी बारिश और उफान की सूचना उन्होंने प्रशासन को दी, किन्तु उनकी बात सिरे से खारिज दी गई। सरकार यह कहती रही कि यहां केवल 4 ही मौतें हुई हैं। इलाके में कोई सहायता नहीं पहुंचाई गई। उन्होंने बताया कि मीडिया में तस्वीरें आने के बाद प्रशासन की नींद टूटी। यहां सेना को भेजा गया। 16-17 और 18 तारीख की लगातार बारिश के बाद सेना ने 19 तारीख को यहां की रेकी की और पूरे इलाके को अपने नियंत्रण में ले लिया। उन्होंने प्रशासन पर संवेदनहीन होने का आरोप लगाते हुए कहा कि अगर सेना यहां नहीं पहुंचती तो न जाने और कितना जान-माल का नुकसान होता। उन्होंने कहा कि नदियों में बहते जीवित लोग और लाशों का मंजर याद करके आज भी उनकी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। बहते-डूबते लोगों की चीखें और नदी के बहाव की आवाजे आज भी उनके कानों में गूंजती रहती हैं। आपदा के दौरान हर तरफ से ऐसी आवाजें आती थीं जैसे कहीं बमबारी हो रही हो। आज भी स्थानीय लोग उमड़ते बादल देखकर सहम जाते हैं। यहां आज भी कई इमारतें पहाड़ों पर झूल रही हैं। संकरे पहाड़ों पर टूटी क्षतिग्रस्त इमारतें अभी भी दुर्घटनाओं को न्यौता दे रही हैं।
चमोली के अरुड़ी, पटूड़ी, पडगासी और पुलना जैसे 84 गांव और श्रीनगर आईटीआई की रेत और मिट्टी से 10 फीट तक भर चुकी बिल्डिंग आपदा की भयावहता की दास्तान बयां करती हैं। नदी किनारे बसे कई गांव तो उत्तराखंड के नक्शे ही गायब हो गए।
आपदा के एक साल बाद भी जंगल चिट्टी में शव और नरकंकालों का मिलना राज्य सरकार की कार्यप्रणाली को दिखाता है। बीते साल राज्य सरकार ने किरकिरी से बचने के लिए तलाश अभियान खत्म कर हालात काबू होने की घोषणा कर दी। जिसका खामियाजा मासूम लोगों को झेलना पड़ा। यदि सरकार अभियान जारी रखती तो कई और जानें बच सकती थीं।
मीडिया में आई खबरों के बाद प्रशासन की ओर से शव निकालने के लिए लोगों को भी भेजा जा चुका है। शव उठाने गए लोगों की योग्यता पर सवाल उठाते हुए श्रीनगर मेडिकल काॅलेज के पूर्व कुलपति डाॅ. जहांगीरदार ने आरोप लगाते हुए कहा कि जिन लोगों को वहां भेजा गया है वे इसके लिए ट्रेंड नहीं हैं। वहां से लौटकर ये लोग अपने घर और गांव में कईं संक्रामक रोग फैला देंगे।
कारगिल की लड़ाई में सेना की हेलिकाॅप्टर युनिट कमांडर रह चुके कर्नल जी.पी. सिंह आजकल गुप्तकाशी से केदारनाथ जाने वाली हेलिकाॅप्टर सेवा से जुड़े हैं। कर्नल सिंह आपदा का कहना कि आपदा के समय उन्होंने अपनी टीम के साथ मिलकर राहत कार्य में बढ-चढ़कर हिस्सा लिया था। उन्होने कहा कि उनकी टीम ने आपदा में फंसे 3000 लोगों को सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया था, लेकिन इसके लिए सरकार की ओर से उन्हें किसी तरह का प्रोत्साहन नहीं मिला।
कर्नल सिंह ने उन्होंने कहा कि प्रकृति तो लोगों को बर्बाद कर गई, लेकिन अब लोग दूसरे खतरों का सामना कर रहे हैं। उन्होंन कहा कि राज्य के स्कूलों में विभिन्न पदों पर 30 प्रतिशत पद खाली है। यदि सरकार चाहे तो वे लोग जिनके परिवार आपदा में मारे गए या लापता हो गए हैं, उनके आश्रितों को नौकरी दी जाए। उन्होंने कहा कि रोजगार के अवसर के लिए लोग यहां बेहद परेशान हैं। उन्होंने कहा कि अपनी हेलिकाॅप्टर सेवा में वे केवल स्थानीय लोगों को ही रोजगार देते हैं और हर साल 25 से 30 लोगों को काम देते हैं। क्योंकि उनका काम केवल 4 से 5 माह का ही होता है इसलिए ये लोग बाकी समय या तो खाली बैठते हैं या कोई छोटा-मोटा काम करने को मजबूर हैं।
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