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छत

storyteller
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चार दिन के घने कोहरे के बाद निकली सर्दियों की मखमली धूप ने आज मौसम का मिजाज़ बदल दिया है। आग और गर्म कपड़ों का सहारा लेकर सर्दियों से बच रहे लोगों को आज सूरज की गर्म किरणें कमरों से निकल कर अपनी छत पर आने का न्यौता दे रही है। लोग कितने खुश हैं। पड़ोस की आंटी अपने छोटे बच्चे को छत पर बैठाकर गुनगने तेल से उसकी मालिश कर रही हैं। आंखों पर सीधी पड़ती धूप से उसकी आंखें पूरी खुल नहीं पा रही हैं। ‘‘चंदा है तू मेरा सूरज है तू’ गाना गाकर आंटी बच्चे को बहला रही हैं। छोटा बच्चा भी बार-बार अपनी मां की नाक और उनके लटकते बालों को छेड़कर खुश हो रहा है। उधर दूसरी छत पर केशव सिंह जिन्हें सभी बच्चे ‘खड़ूस अंकल’ कहकर पुकारते हैं, हाथ में अखबार लिए चाय की चुस्की ले रहे हैं। उनकी छत पर ही उनकी धर्मपत्नी कानों पर स्कार्फ लपेटे हुए गीले पड़े कपड़े सुखा रही हैं। सर्दियों में गीले कपड़े सुखाना मानों किसी दुर्ग को जीतना है और आज गर्म धूप को देखकर आंटी की बांछे खिल आई हैं।
मौहल्ले की लगभग हर छत पर यही नज़ारा है। कोई छत पर कालीन बिछाकर मूंगफली, गजक, रेवड़ी का मजा ले रहा है तो कहीं छत पर बच्चे खेल में मस्त हैं। अपनी खिड़की से झांकते हुए राजीव ये सारा नजारा देख रहा है। एक फ्लैट में रह रहे राजीव का मन हर सुबह बस यही मलाल करता है कि उसके पास छत नहीं है। पेड़ों के पत्तों से छनकर उसकी खिड़की में थोड़ी सी धूप जरुर आती है लेकिन वो गर्म धूप उसके मन को ठंडक पहुंचाने के लिए काफी नहीं है। ज़रा सी धूप के लिए राजीव ने अपने पलंग को भी खिड़की के पास ही लगा लिया है। हालांकि खिड़की के पास पलंग होने से उसे सड़क पर चलती गाडि़यों का शोर और हड्डियां कंपा देने वाली हवा को भी सहना पड़ता है, लेकिन तन सी धूप के लिए सब बर्दाश्त है।
आंखों पर पड़ती धूप को महसूस करते हुए राजीव उन दिनों को याद करता रहता है जब उसके पास भी छत थी। सर्दियां हों या गर्मियां उसका ज्यादातर समय छत पर ही बीता करता था। छोटा सा राजीव सुबह सबसे पहले अपने इमली के पौधे को पानी देने छत पर आया करता था। स्कूल के सामने इमली बेचने वाली बुढि़या अम्मा से खरीदी इमली का बीज एक दिन राजीव ने पौधे में थूक दिया था। कुछ दिनों बाद उसका पौधा उगने से राजीव को ये लगने लगा था कि एक दिन ये पौधा उसे बहुत सारी इमली मुफ्त में देगा। अपने पौधे को पानी देने के बाद ही राजीव स्कूल को जाया करता। स्कूल से आकर भी राजीव सबसे पहले छत पर जाकर अपने पौधे को देखा करता। घर से कुछ ही दूरी पर रेलवे लाईन थी जिस पर आने-जाने वाली हर रेलगाड़ी के डिब्बों को गिनकर राजीव अपना वक्त गुज़ारा करता। मालगाड़ी उसे बेहद पसंद भी क्योंकि उसमें ज्यादा डिब्बे हुआ करते थे और ज्यादा देर तक गिनना राजीव को अच्छा लगता था। उसके दोस्त बोलते थे कि रात को इसी रेल की पटरी पर सिर कटा भूत ट्रेन के पीछे दौड़ता है, उस भूत को देखने के लिए राजीव न जाने कितनी ही रातों को डरता हुआ छत पर आया, लेकिन उसे भूत देखना कभी नसीब नहीं हुआ।
थोड़ा सा बड़ा होने के साथ ही घर की छत उसकी और उसके दोस्तों के क्रिकेट के मैदान में तब्दील हो गई। गली के बच्चों के साथ राजीव भरी दोपहरी में अपनी छत पर बच्चों के साथ क्रिकेट खेला करता। हालांकि मां नीचे से हमेशा चिल्लाती रहती कि छत पर उछल-कूद ना करो वरना वो टपकने लग जाएगी, लेकिन उसे क्या समझ राजीव अपनी मस्ती में खेलता रहता। जब बारिश पड़ती तो राजीव छत पर आ जाया करता और बारिश में नहाता। इस बार झमाझम मूसलाधार बारिश पड़ी और छत टपकने भी लगी। मां ने घर के बर्तनों को नीचे लगाकर घर के बिस्तरों को जैसे-तैसे करके भीगने से बचाया। छत की मरम्मत कराने पर अच्छा खासा खर्चा हुआ इसलिए मां की डांट के बाद राजीव का छत पर खेलना बंद हो गया।
राजीव अब बड़ा भी हो रहा था। छत का मैदान उसके लिए छोटा पड़ रहा था। दिल्ली के स्कूलों में दिसम्बर में परीक्षाएं हुआ करती हैं। अब ये मैदान उसकी पढ़ाई करने की जगह में तब्दील हो गया। अपने सिर के पास छोटा सा रेडियो रखकर राजीव पढ़ाई में लगा रहता। पढ़ाई की जगह उसका ध्यान रजिस्टर के आखिरी पन्ने पर अजीब-अजीब आकृतियां बनाने में ज्यादा रहता। मां का दिया हुआ संतरा और अमरुद खत्म करने के बाद राजीव की पढ़ाई भी खत्म हो जाती और हल्की शाम ढलते ही वो नीचे आ जाया करता।
अपनी आंख पर पड़ती धूप को महसूस करता हुआ राजीव अतीत में खो गया था। बालों में हाथ फिराते हुए वो बस अपने पुराने दिनों को याद कर रहा था। पड़ोस में चल रहे ‘‘यो यो हनी सिंह’’ के गाने के शोर के बीच वो दूरदर्शन से अपना नाता याद करने लगा।
बडे होते राजीव का हाथ अब छत पर लगे टीवी के एंटीना तक जाने लगा था। रात को चली तेज हवा की वजह से टीवी एंटीना थोड़ा झुक गया था और टीवी की पिक्चर साफ नहीं आ रही थी। मां ने राजीव को छत पर चढ़कर एंटीना को एडजस्ट करने के लिए बोला। छत पर एंटीना को हिलाते हुए राजीव का ध्यान साथ वाली छत पर पडा। आज कईं सालों बाद उसने कविता को देखा था। वो भी लगातार राजीव को ही देखे जा रही थी। मां नीचे से आवाज़ पर आवाज़ लगाए जा रही थी ‘‘बेटा नीचे आ जा, टीवी साफ चलने लगा हैै।’’ छत पर खड़े राजीव और कुछ फुट नीचे खड़ी मां के बीच की दूरी मानों मीलों की दूरी हो गई थी। मां की आवाज़ राजीव के कानों तक पहुंच ही नहीं रही थी। मां ने जब दीवाली पर जलाया हुआ पुराना दिया छत पर फेंका तब राजीव का ध्यान मां की आवाज़ पर गया। कविता को रुके रहने का इशारा कर के राजीव नीचे आ गया और पढ़ाई का बहाना बनाकर फिर से छत पर पहुंच गया।
ये सिलसिला अब रोज़ाना का हो गया। राजीव और कविता रोज़ अपनी-अपनी छतों पर आते और इशारों में बातें करते। कविता छत पर आने के लिए राजीव के पास अब एक नई वजह थी। कविता भी तरह-तरह के हेयर स्टाइल बनाकर राजीव को दिखाती और राजीव भी इशारों में उसकी तारीफ करता। कोई भी नई चीज़ खरीद कर लाने पर वो दोनों सबसे पहले एक-दूसरे को दिखाते। नया कपड़ा या नया जूता पहन कर सबसे पहले राजीव छत पर ही भागता। मां भी हैरान थी नए कपड़े पहनकर राजीव सीधा छत पर ही क्यों भागता है। कविता भी राजीव को इशारा करके फोन करने के लिए बोल देती थी। छत से नीचे जा कर वो फोन के पास जाकर बैठ जाया करती और पहली घंटी बजते ही फोन उठा लिया करती। मां पूछती तो हमेशा कहती कि रंजना का फोन है। राजीव भी तब तक फोन पर बात करता रहता जब तक कि उसकी जेब के सारे सिक्के खत्म नहीं हो जाया करते।
दिन बीते और कविता ने 12वीं पास करके दिल्ली से बाहर पढ़ाई करने का फैसला लिया। ये जानकर राजीव हैरान था कि कविता ने बिना बताए ये फैसला कैसे ले लिया। राजीव ने रुकने के लिए भी बोला, लेकिन कविता का फैसला अटल था। उसने राजीव को करियर पर ध्यान देने के लिए कहा। छत से अलग ये उन दोनों की पहली और आखिरी मुलाकात थी। राजीव ने भी मां की ना के बाद दिल्ली छोड़कर पंजाब यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया। पिताजी ने राजीव को खूब डांटा और समझाया कि वो दिल्ली में रहकर ही पढ़ाई करे। राजीव के जिद करने पर पिताजी ने राजीव के गाल पर चांटा रसीद कर दिया। घर का माहौल एकदम से बदल गया। नादान राजीव ने इस चांटे का कुछ और ही मतलब निकाल लिया। राजीव ने छत के कोने पर बैठकर रोते हुए लगभग पूरा दिन निकाल दिया। मां की मान मनौव्वल के बाद राजीव नीचे अपने कमरे में आया। दिल्ली से बाहर जाने का उसका फैसला अब और पक्का हो गया था।
ये सब याद करते हुए राजीव की आंखे भर आई थी। आंसू की एक धार आंखों से निकलते हुए उसके कानों को छू रही थी। आंखों पर पड़ रही धूप भी अब तकिए पर पड़ने लगी थी। एक लम्बी सांस के बाद राजीव ने करवट बदली और तकिए को अपने पैरों के बीच दबाकर फिर से यादों में खो गया।
घर से निकलते हुए राजीव ने अपने पिताजी को सुनाते हुए मां से सिर्फ इतना कहा, ‘‘मां एक दिन मेरे सिर पर मेरी अपनी छत होगी।’’ ये शब्द याद आते ही उसकी आखों से आंसुओं की तेज धार छूट पड़ी। राजीव की चादर उसके आसुंओं से भीग गई थी। सुबकता हुआ राजीव बस अपने आसुंओं को रोकना चाह रहा था, लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी उसकी आंखे ये वेग रोक नहीं पर रही थी। राजीव बस यही सोचे जा रहा था कि उसके सिर पर तो छत जरुर है, लेकिन उसके कदमों के तले कोई छत नहीं।
अचानक से पलंग के दाईं और पड़ा राजीव का मोबाइल फोन घनघनाया। ये फोन राजीव के आफिस से था। राजीव ने रुंधते हुए गले को साफ करते हुए हैलो बोला। दूसरी ओर से चहकते हुए स्वर में आवाज़ आई ‘‘मुबारक हो! तेरी ट्रांसफर की एप्लिकेशन मंजूर हो गई है।’’ बड़ी मुश्किल से चुप हुआ राजीव फिर से रो पड़ा। फोन पर सिर्फ थैंक्स कहा और कल मिलने की बात बोलकर फोन रख दिया। कुछ पल के लिए बालों को पकड़कर रोने के बाद राजीव ने मां को फोन मिलाया। मां के कुछ बोल पाने से पहले ही राजीव ने कहा ‘‘ मां छत की सफाई कर देना मैं अगले सोमवार को हमेशा के लिए घर आ रहा हूं।’’

राहुल पारचा

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