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सिक्किम में-“मेरे यार की शादी”

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namchi guru

namchi guru
]महज चंद घंटों की मुलाकात मुझे घर से इतना दूर ले जाएगी, मैंने ये कभी सोचा नहीं था। शायद अक्टूबर या फिर नवंबर 2009 की बात है जब मैं रुपेश और बिशाल से मिला था। दोनों से एक न एक दिन सिक्किम आने का वायदा किया था। हालांकि वायदा करके किसी मौके की तलाश में था, कि कोई बहाना मिले और मैं सिक्किम जाऊं और बहाना आ भी गया। रुपेष की षादी। इससे पहले जब मैं, दीपक और नानू लैंड्सडौन गए थे , हमने तय किया था कि हम तीनों ही सिक्किम जाएंगे । लेकिन नानू के मना करने के बाद मैंने और दीपक ने ट्रेन के टिकट बुक करा लिया । 8 दिसंबर को हम सिक्किम के लिए रवाना हो गए । मैंने ट्रेन से कभी इतना लम्बा सफर नहीं किया था, या फिर ये मेरी जिंदगी का सबसे लंबा सफर था। खैर ट्रेन में बैठे और दोपहर 2 बजे से हमारी सिक्किम की यात्रा शुरू हो गई। हमारी सीट के पास मोबाईल फोन चार्ज करने का पाव्इंट नहीं था। जिसकी वजह से हमें बार बार अपने साथ वाली सीट पर बैठे एक मारवाड़ी परिवार को तंग करना पड़ रहा था। हालांकि उस परिवार के मुखिया ही परेशान थे। हमें देखकर चेहरे पर अजीब अजीब मुद्राएं ला रहे थे। वैसे वो अपनी जगह ठीक भी थे, क्योंकि ऊपर की बर्थ पर बैठी उनकी बेटी हमें देखकर मुस्कुरा रही थी । और हम बस खुद को किसी तरह उसकी नजरों से बचा रहे थे । वो महफूज जगह पर जो थी । हम तो अरमानों को दबा कर बैठे थे। ऐसे में उसके पिता का नाराज होना तो लाजिमी ही था। जब हम ट्रेन में थे उस समय सहवाग कैरेबियाई खिलाडि़यों की बखिया उधेड़ रहा था। बस हम बैठे-बैठे यही कयास लगाए जा रहे थे कि दिल्ली में इस समय क्या माहौल होगा।

खै़र लम्बे इंतजार के बाद न्यू जलपाई गुड़ी आया। ट्रेन से उतर का हमने कुछ खाया-पीया और रुपेश के गांव ‘माखा’ की ओर कूच किया। माखा जाने के लिए हमें पहले सिंगताम जाना था । यहीं से हमें आगे की सवारी मिलनी थी । हमने जीप ली और चल दिए सिक्किम की ओर। कुछ किलोमीटर चलने के बाद ही एक बेहद शानदार नदी ‘तीस्ता’ ने हमारा साथ पकड़ लिया । ऊपर पहाड़ों से ये नदी और भी शानदार दिखाई दे रही थी । मैं कुछ फोटो खींचना चाहता था लेकिन कैमरा ऊपर बैग में ही रह गया था । इसलिए मोबाइल फोन के कैमरे से ही काम चला लिया।

यहां की सड़के कुछ खास थी । पता नहीं क्यों । एक खूबसूरत लड़की की कमर की तरह बलखाती सड़क । हर मोड़ पर कभी दाएं तो कभी तो कभी बाएं धकेलती सड़क । संकरी सड़क। चिकनी सड़क। मिट्टी की सड़क । पत्थर की सड़क । हालांकि चीन की बढ़ती गतिविधियों की वजह से यहां की सभी सड़कें चैड़ी हो रही हैं । भगवान न करें कभी ऐसी नौबत आए कि कभी सेना के ट्रक लड़ाई लड़ने के लिए यहां से आवाजाही करें।

इस जीप में हमें एक पंजाबी मिला। जो शायद कब से भरा बैठा था, किसी से बात करने के लिए । मैं उसे भांप चुका था । और दीपक के अलावा भी किसी से बात करना चाहता था । वैसे भी उसने मुझे एक काम दे रखा था । जिसे पूरा करने की जिम्मेदारी मेरी थी । मुझे लगा कि ये बंदा काम का हो सकता है इसलिए मैंने बस उससे बात करनी शुरू कर दी । उसने अपने छह महीने का अनुभव दो घंटे में हमारे सामने बयां कर दिया । उसने कुछ डरा दिया । कहा कि हमें यहां अपनी मर्जी का खाना नहीं मिलेगा । चाहे जेब में कितना भी पैसा हो । यहां का ज़ायका मैं एक बार चख चुका था । इसलिए मेरी कुछ ज्यादा ही ……….. गई थी । उसने वो चीज भी बता दी थी जिसके लिए मैंने उससे बात की थी ।

बातों ही बातों में सिक्किम की सीमा रोंगपू आ गई । यहां गाड़ी को चेक किया गया । सिक्किम में घुसते ही सबसे पहले नजर वहां शराब की दुकानों पर गई । वहां चाय की दुकान केवल एक थी । लेकिन शराब की दुकाने लगभग 20 । या फिर उससे भी ज्यादा । वो भी सभी एक साथ । और 70 प्रतिशत दुकानों की मालिक औरतें थी । वो न केवल शराब बेचने भर के अड्डे हैं। बल्कि आप अपनी क्षमता अनुसार वहां बैठ कर एक या दो जाम पी भी सकते हैं । मुझे ये सिस्टम पसंद आया । बढि़या है । लेकिन दिल्ली में शायद ही कभी ऐसा सिस्टम आ सके ।

हम सिंगताम उतरे और माखा के लिए एक प्राईवेट टैक्सी ली । यहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट लगभग न के बराबर है । सभी लोग टैक्सियों पर ही आश्रित हैं । 30 घंटे के सफर के बाद हम उस लड़के के घर पहुंचे जिससे मैं 2 साल पहले केवल कुछ घंटों के लिए मिला था । हम लोग गले मिले । और समझ नहीं पा रहे थे कि एक दूसरे से क्या बोलें । कुछ समय बस इसी सोच में निकल गया । ये मेरा पागलपन था । या दोस्ती । भगवान ही जाने । शायद ये दोस्ती ही थी । कुछ भी हो हम फोन पर तो लगातार संपर्क में हैं ही ना ।

रुपेश ने हमें अपने परिवार से मिलाया । दिक्कत ये थी कि वो लोग नेपाली में बात कर रहे थे और हम हिंदी में । यहीं से शुरू हुई हमारी असली सिक्किम यात्रा । रुपेश के सगे संबंधी हमारे पास आते । रुपेश उन्हें हमसे मिलाता । हम सिर्फ गर्दन झुकाकर उनका सत्कार करते । वो हमसे पूछते, ‘‘आप केवल रुपेश का ब्याह के लिए दिल्ली से यहां आया है ?’’ हम जवाब में कभी ‘‘हां’’ कहते या कभी सिर्फ गर्दन हिलाते । हमारे जवाब के बाद वो लोग फिर से आपस में नेपाली में कुछ बात करते । (मुझे ऐसा लगता है कि वो नेपाली में या तो ये कहते होंगे ‘‘बहुत याराना लगाता है’’ या फिर कहते होंगे ‘‘साले पागल हैं’’) । ये जो भी था बेहद खूबसूरत था । अपनी ही तरह का एक अलग अनुभव । मगर सच में वे लोग बेहद सीधे थे । बेहद साधारण । न कोई लाग न लपेट । जैसे हैं, बस वैसे हैं । कोई दिखावा नहीं ।

क्योंकि यहां किसी तरह का कोई हो-हल्ला नहीं था। इसलिए मैं और दीपक यही सोचते रहते थे कि यहां के लोग अपना टाईप कैसे पास करते होंगे। लेकिन यहां दिन ही इतने छोटे हैं कि पता ही नहीं चलता कि दिन कब ‘पास’ हो गया।

यहां बहुत ठंड थी । और इस सर्दी में ठंडे पानी से नहाया । लेकिन मजा बहुत आया । रुपेश की शादी का दिन आया । और सुबह 5:30 पर बारात घर से चल पड़ी । नेपाली में शादी में ‘खादा’ (एक तरह का स्कार्फ जिसे हर षुभ काम में पहना जाता है) का अपना विशेष महत्व है । हमारे गले में (यानि सभी बारातियों के गले में) खादा डाला गया । कोट पर एक मोरपंखी का ब्रोच और माथे पर चावल, दही से बना गुलाबी रंग का बड़ा सा टीका लगाया गया । मैं अर्पण के बारे में तो बताना भूल ही गया । आठवीं क्लास में पढ़ने वाला अर्पण रुपेश का भतीजा है । जब तक हम माखा में रहे वो हमारे साथ ही रहा । कई बार उसने हमारे लिए एक दुभाशिए का काम भी किया । सिक्किम के ज्यादातर सभी लोगों की तरह वो भी फुटबाल का दीवाना है। क्रिकेट के बारे में उसे बहुत कम पता है। सहवाग ने डबल सेंचुरी मारी, उसे इसके बारे में नहीं पता। और जानने में कोई खास रुचि भी नहीं थी।

तीन घंटों के हिचकोले भरे सफर के बाद हम करुणा के घर पहुंचे। शादी की रस्में होनी शुरू हुई । जब भाभी (करुणा) के परिवार की महिलाओं ने एक रस्म के तहत सभी पर चावल फेंकने शुरू कर । वहां खड़े लोग ऐसे डर कर भागे जैसे वे लोग गोलाबारी कर रही हों। मैं और दीपक तो वहीं खड़े रहे। और सामने से आ रहे चावलों का डटकर मुकाबला किया। दूल्हा भी खुद को बचाने के लिए छतरी लेकर आया था (यदि कोई नेपाली बंधु जानता हो कि चावलों की मार से लोग क्यों भागे तो जरुर बताएं)। आमतौर पर दिल्ली में जब किसी व्यक्ति के घर शादी होती है तो दिखावा, तड़क-भड़क, तेज म्यूजिक, खाना, पंडाल और दहेज में वो लाखों रुपया खर्च कर देता है। कई बार समाज में अपना रुतबा दिखाने के लिए अपनी चादर से ज्यादा पैर पसार लेता है। लेकिन यहां की शादी काफी अलग थी। ना दिखावा, ना 56 भोग, न लाखों का दहेज, सब कुछ सादा, सौम्य और हदों में । घर के लोग गए और दुल्हन ले आए। और खाना वो भी कम लजीज नहीं था। चलिए……… थोड़ी देर तक तो सब कुछ सही चलता रहा, लेकिन इतनी सादी शादी की हमें आदत नहीं है । इसलिए थोड़े बोर हो गए । भाषाई दिक्कत के कारण किसी से बात भी नहीं कर सकते थे।

सभी रस्मों रिवाजों से निपटकर बारात विदा हुर्ह। रुपेश के घर पहुंचे। और सो गए। अगले दिन फिर उठे । ठंडे पानी से नहाए । और तैयार हो गए रिसेप्शन के लिए। आज का दिन खास था । क्योंकि आज मुझे बिशाल से भी मिलना था। (ये विशाल नहीं है, बिशाल ही है । बिशाल गुरुंग)। इसके नाम के साथ भी एक ट्रेजेडी जुड़ी हुई है। बचपन में गलत उच्चारण के कारण इसका नाम विशाल से बिशाल हो गया । जो आज भी बदस्तूर जारी है। बिशाल आया। हम मिले। हमने खाना खाया। दीपक ने बहुत सारी खीर खाई। बार बार खाई । कई बार खाई । (मामला थोड़ा कंट्रोवर्षियल हो सकता है, इसलिए बार बार खीर खाने की वजह यहां नहीं बता सकता।)

रुपेश के पूरे परिवार से विदा लेकर हम गंगटोक की रवाना हो गए। हालांकि वर और वधू, साथ ही हमें भी इस बात का मलाल रहा कि हम दोनों से ज्यादा बात नहीं कर पाए । भाभी तो जब भी बात करती है, पहले इसके लिए मांफी ही मांगती हैं।

12 दिसंबर की शाम को हम गंगटोक पहुंचे। अपना सामान रखा और थोड़ा पेट भरने के लिए निकल पड़े। यहां एमजी रोड की सुंदरता देखते ही बनती है। सिक्किम के ट्रेडिशनल सामान के नाम पर बिकता चीनी सामान पर्यटकों को लुभा सकता है। लेकिन इस सामान की सच्चाई हमें बिशाल और प्रकाश ने हमें बता दी। रात हुई। और न जाने क्या क्या बातें करते-करते हम सो गए। अगले दिन शुरू हुआ घुमक्कड़ी का दौर। एक टैक्सी कर के सबसे पहले हम पास ही के एक फ्लावर गार्डन गए। जहां कुछ स्कूल से बंक मार रहे बच्चे, कुछ प्रेमी युगल घूम रहे थे। इसके बाद हम ऊपर बने मंदिर में गए । घने पेड़ों और चट्टानी पहाड़ों से घिरा सिक्किम यहां से बेहद खूबसूरत दिखाई पड़ रहा था।

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ये अफजाल कहीं भी हमारा पीछा नहीं छोड़ता। बनझाखरी फाल गए। यहां भी इसकी एक प्रतिमूर्ति लगी हुई थी।

एक खूबसूरत से पार्क को पार करने के बाद हमारे सामने बनझाखरी फाल आया। ऊंचाई से गिरते पानी को देखना हमेशा अच्छा लगता है। और पानी पर गिरते पानी की आवाज़ उसे और खूबसूरत बना देती है। अब वापिस पहुंच कर बिशाल को स्टोरी भी बनानी थी। इसलिए हम जल्दी से वहां से चल पड़े। हिंदी थोड़ी कच्ची होने के कारण उसे हिंदी समाचार बनाने में दिक्कत आती थी। इसलिए मैं वहां बैठकर उसके हिंदी की स्टोरी बनाता।

जिस समय मैं सिक्किम में था। यहां राजनीतिक हलचलें बढ़ने लगी थी। एक तरफ तो मुख्यमंत्री पवन चामलिंग ने आठ महीने बाद होने वाले चुनावों को तीन महीने बाद ही कराने का फैसला सुनाकर राज्य में हड़कंप मचा दिया था । वहीं दूसरी ओर पूर्व केन्द्रीय मंत्री और सांसद जसवंत सिंह ने गोरखालैंड मुद्दे पर बयानबाजी कर माहौल गर्म कर दिया। यहां समाचार बनाने की वजह से मुझे यहां की राजनीतिक गतिविधियां समझ आने लगी थी।

पिछले बरस आए भूकंप की दरारे अभी गई नहीं हैं। बिशाल का वो कमरा जिसमें हम ठहरे थे वहां की दीवारों में भी दरारें दिखाई दे रही थी। कमरे से याद आया। गंगटोक में पहली रात थोड़ी डरावनी निकली। हुआ यूं कि रात को मैं, दीपक और बिशाल भूतों की बातें करने लगे। बातों ही बातों में बिशाल ने बताया कि उसने उस कमरे में कई बार कुछ अजीब चीजें महसूस की हैं। जैसे अपने आप ही बाथरुम के नल का खुल जाना। कमरे का दरवाज़ा खुल जाना वगैरह। ये सुनकर तो तिजोरी बन गई थी। मैंने फौरन कुछ और बातें करने के लिए कहा।

अगले दिन हम नाम्ची और चार धाम गए। यहां चार धाम बनाने का भी खास मकसद है। विशाल भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में बसे होने के कारण सभी सिक्किम वासियों का चारों धामों के दर्शन करना जरा मुश्किल काम है । इसलिए राज्य सरकार ने यहीं पर चार धाप स्थापित कर दिए। चार धाम का दर्शन तो अभी नवंबर में ही हुआ है। भगवान शिव की विशालकाय मूर्ति और गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम भी यहां देखा जा सकता है। और नाम्ची में ‘‘नाम्ची’’ की 118 फुट ऊंची मूर्ति स्थापित है। जोकि विश्व में उनकी सबसे ऊंची मूर्ति भी है। चाय के बागान, उनकी खुश्बू, सर्दी, कोहरा सब कुछ मस्ती में सरोबार करने वाला था। रात के समय एम.जी. रोड बेहद शानदार दिखाई पड़ता था। यहां घूम रहे लोगों के देखकर एक बार यही लगता है कि आप किसी फैशन शो में आए हैं। लगभग कोरियाई और हिपहाॅप स्टाईल में सजे लड़के लड़कियां अपनी ही मस्ती में मस्त दिखाई दे रहे थे।

बिशाल के दोस्त शेखर ने बताया की पुरानी राजशाही के चलते आज भी यहाँ सिक्किम कि बाहार से आये लोगों को कुछ स्थानीय लोग ‘भारतीय” कहते हैं . सुन कर थोडा अजीब लगा.. लेकिन फिर ये सोचा की अन्य राज्यों में पूर्वोत्तर के लोगों को भी तो ‘चिंकी’ कहते है.

खूबसूरती की बात करुं, तो यहां हर चीज़ खूबसूरत है। पेड़, पर्वत, नदी, सड़के, एम.जी.रोड, मंदिर यहां के लोग, उनका व्यवहार। खूबसूरत यहां की लड़कियां, लड़कियां और लड़कियां….। जितनी तारीफ करुं कम है। सच में, दिल से।

अब यहां से वापिस घर को आने का समय होने लगा था। वक्त की कमी के कारण हम फिर भी काफी सारी जगहों पर नहीं घूम पाए थे। रुपेश की शादी में काफी समय लग गया। इसलिए सिक्किम ठीक से देख पाने का समय ही नहीं मिला।

आखिर में घर के लिए राजधानी में बैठे और छह घंटे लेट हुई देश की सबसे प्रतिष्ठित ट्रेन से 30 घंटे का सफर करके दिल्ली में कदम रखा। सिक्क्मि से मैं बहुत सी खुशनुमा यादें, कुछ सुहाने पल, बहुत सारी चाय और दो याक (खिलोने) के साथ कुछ बहुत ख़ास चीज़ लेकर आया। वो है:-
‘‘माय सैसी गर्ल’’
और

‘‘तुलसी आंगन में रौपऊं ला,
जीवन भारी छाती मा राखी
माया ली छोपऊं ला।’’

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